(जैसलमेर के
राजा महारावल रत्नसिंह का दरबार। राजकुमारी रत्नावती मंत्री के साथ बैठी विचार-विमर्श कर रही
हैं।)
रत्नावती ःमंत्री जी,
राज्य में सब कुशल तो है?
मंत्री ःजी, राजकुमारी,
आप की कृपा से सब कुशल है। सब प्रसन्न हैं। प्रजा के असंतोष को देखते हुए दक्षिण प्रांत
में कर-वसूली का कार्य स्थगित कर दिया गया है।
रत्नावती ःहाँ, इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाए कि प्रजा
कोई कष्ट न हो।
मंत्री ःजी, राजकुमारी,
राजस्व मंत्री उस क्षेत्र का सर्वेक्षण करा रहे हैं। जो लोग कर देने में सक्षम नहीं हैं उनका कर माफ
कर दिया जाएगा।
रत्नावती ःबहुत
अच्छा। (जैसे अपने आप से कहती हैं) पिता श्री लंबी यात्रा पर हैं। उनकी अनुपस्थिति में प्रजा
को कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। उसे यह न लगे कि अपने न्यायप्रिय राजा की
अनुपस्थिति में उस पर अत्याचार हो रहे हैं।
मंत्री ःकदापि नहीं, राजकुमारी। प्रजा बहुत प्रसन्न है। सब ओर
अमन-चैन है।
रत्नावती ःप्रजा
का अमन-चैन तो आप ही लोगों के सहयोग पर निर्भर है, मंत्री जी। इसके लिए आप सब बधाई के पात्र हैं।
(तभी बाहर की
ओर कोलाहल सुनाई देता है। सैनिकों की आवाज़ें। सेनापति घबराया हुआ प्रवेश करता है।)
सेनापति ः(हाँफता
हुआ)..राजकुमारी..की जय हो..!
रत्नावती ः(सशंकित
होकर) क्या हुआ सेनापति जी? यह कोलाहल
कैसा?
सेनापति ःराजकुमारी
जी, दिल्ली के सुल्तान
अलाउद्दीन ख़िलजी की सेना ने हम पर आक्रमण कर
दिया है।
रत्नावती और मंत्रीः
(एक साथ) आक्रमण..!
सेनापति ःहाँ, राजकुमारी, यह जानकर कि हमारे वीर राजा राज्य के बाहर हैं, उसने एक विशाल
सेना भेज दी है। हमारे क़िले को चारों ओर से घेर लिया गया है।
रत्नावती ः(दृढ़
स्वर में) घबराइये नहीं, क़िले की
दीवारें इतनी ऊँची और अभेद्य हैं कि उन्हें लाँघ
पाना उनके बस की बात नहीं। क़िले की बुर्जियों पर तैनात सैनिक बाणों की वर्षा करके उन्हें रोके रहेंगे। इस बीच हमारे पास
इतना समय होगा कि हम अपनी रणनीति तैयार कर सकें। लेकिन हमें
शीघ्रता करनी होगी।
सेनापति ःहाँ, राजकुमारी जी, हमें जल्द ही कोई रणनीति तैयार करनी होगी
क्योंकि शत्रु-सेनापति बहुत विशाल सेना लेकर आया है, और क़िले में इस समय सैनिकों की संख्या बहुत कम है।
(तभी एक सैनिक
का प्रवेश। वह बुरी तरह से घायल है। शरीर में जगह-जगह से रक्त बह रहा है।)
सैनिक ः(कठिनाई
से झुककर) राजकुमारी...की जय...हो।
रत्नावती ःयह
क्या वीर सैनिक? तुम्हारी यह
दशा कैसे हुई?
सैनिक ःक़िले
की उत्तरी...दीवार पर शत्रु-सेना ने..चढ़ना आरंभ कर दिया है। ..बुर्जियों पर तैनात सैनिक...वीरगति को
प्राप्त हो गए हैं। अगर शत्रु को...कुछ देर और न रोका गया तो...
(अचेत होकर गिर
जाता है)
रत्नावती ः(चेहरे
पर क्षण भर चिंता की रेखाएँ उभरती हैं,
पर अगले ही पल दृढ़ स्वर में) मंत्री जी, इस सैनिक को चिकित्सा-शिविर में भेजने का
प्रबंध करिए।
(मंत्री अपने
अनुचरों के साथ सैनिक को ले जाता है।)
सेनापति ःमुझे
भी आज्ञा दीजिए, राजकुमारी जी।
मैं उत्तरी क्षेत्र का सैन्य-प्रबंध देखता हूँ।
रत्नावती ःअवश्य!
किंतु यह ध्यान रहे कि शत्रु शक्तिशाली है। सिर्फ तीर-तलवारों से उसका सामना नहीं किया जा सकता।
सेनापति ःतो
फिर क्या आज्ञा है?
रत्नावती ःहमारा
पहला कार्य क़िले की रक्षा है। अगर शत्रु-सैनिक क़िले में प्रवेश पा गए तो हमारी रणनीति विफल हो
जाएगी। हमें किसी भी उपाय से उन्हें बाहर ही रोके रखना है। ऊपर से खौलता हुआ तेल उन
पर गिराइए। इससे वे दीवारों के आस-पास नहीं फटकेंगे।
सेनापति ःजैसी
आज्ञा, राजकुमारी। (जाता है।)
(रत्नावती
बेचैनी से इधर-उधर टहलती है और अपने आप से कहती है।)
रत्नावती ःपिता
श्री, बाहर हैं। अब राज्य की
रक्षा का समस्त उत्तरदायित्व मुझ पर है। पिता श्री मेरी योग्यता पर पूरा भरोसा
करते हैं। मुझे भी आज यह साबित कर दिखाना है कि उनकी बेटी पुरुषों से किसी भी प्रकार कम नहीं। अपने जीते जी जैसलमेर की
पवित्र भूमि पर शत्रुओं के पैर नहीं
पड़ने दूँगी, यह मेरा प्रण
है।
(तभी क़िले के
वृद्ध द्वारपाल का प्रवेश)
द्वारपाल ःराजकुमारी
की जय हो।
रत्नावती ः(चौंककर)
कौन? (पहचानते हुए) द्वारपाल
तुम, इस समय यहाँ?
द्वारपाल ःहाँ, राजकुमारी जी, आपको एक आवश्यक सूचना देनी थी।
रत्नावती ःकहो, क्या कहना है।
(द्वारपाल आगे
बढ़कर वस्त्रों में छिपाया धातु का एक पिंड सामने रख देता है।)
रत्नावती ः(चौंककर)
यह क्या? यह तो शुद्ध
स्वर्ण है! तुम्हारे पास कहाँ से आया?
द्वारपाल ःशत्रु
के सेनापति ने भेंट-स्वरूप दिया है। क़िला फतह करने के बाद उसने और भी उपहार देने का वचन दिया है।
रत्नावती ः(क्रोधित
होकर) क्या बकते हो?
द्वारपाल ः(घुटनों
के बल झुकता हुआ) अपराध क्षमा करें,
राजकुमारी। शत्रु-सेनापति ने मेरी गर्दन पर तलवार रखकर रात के अंधेरे में चुपके-से क़िले का द्वार खोल देने
की धमकी दी। मैं अकेला था। मना करता तो वह मेरा सिर धड़ से अलग कर देता। मैंने अपने जान बचाने और उसकी करतूत
आप तक पहुँचाने के लिए ‘हाँ’ कह दिया। मैं अपनी बात से मुकर न जाऊँ, इसलिए उसने मुझे स्वर्ण का प्रलोभन दिया।
(रत्नावती कुछ
नहीं बोलती। उसके चेहरे पर भावों का उतार-चढ़ाव दिखाई देता है। कुछ क्षणों तक सन्नाटा छाया
रहता है।)
रत्नावती ःद्वारपाल, जब तुमने वचन दे ही दिया है तो नियत समय
पर द्वार खोल देना।
द्वारपाल ः(चौंककर)
आप यह क्या कह रही हैं, राजकुमारी।
मेरे हाथ भले ही कट जाएँ, जान भले ही चली जाए, पर यह कृतघ्नता मुझसे नहीं हो सकती। मैं
एक राजपूत हूँ। अपने राज्य के प्रति
कृतघ्न कैसे हो सकता हूँ?
रत्नावती ःइसीलिए
तो कह रही हूँ, द्वारपाल। झूठ
ही सही, पर जो वचन दे दिया गया, उसे निभाना
एक राजपूत का कर्तव्य है। तुम क़िले का द्वार खोलोगे, अवश्य खोलोगे, पर उनके
लिए नहीं, हमारे लिए। हम
छल का जवाब छल से देंगे।
द्वारपाल ः(समझता
हुआ प्रसन्नता से) जैसी आज्ञा राजकुमारी।
(जाता है।)
रत्नावती ः(स्वयं
से) मैं भी चलूँ। सेनापति जी से आवश्यक मंत्रणा करनी है।
दूसरा दृश्य
(अर्द्ध रात्रि
का समय। चारों तरफ अंधकार छाया हुआ है। द्वारपाल क़िले के फाटक के पास व्याकुलता से चहलक़दमी
कर रहा है। ज़रा-सी आहट पर वह चौकन्ना होकर इधर उधर देखने लगता
है। तभी सीटी बजने की-सी आवाज़ सुनाई देती है।)
द्वारपाल ः(चौंककर)
शत्रु-सेनापति का आगमन हो गया है। सीटी की ध्वनि उसी का संकेत है। मुझे भी प्रत्युत्तर देना
चाहिए। (सीटी की ध्वनि निकालता है)
(द्वार के पास
फुसफुसाहट का स्वर सुनाई देता है-‘पहरेदार, दरवाज़ा खोलो। हम आ गए हैं।’ द्वारपाल लपककर फाटक खोल देता है। सामने
शत्रु-सेनापति अपने प्रशिक्षित सैनिकों की टुकड़ी
लिए खड़ा है। चेहरे पर विजयी मुस्कान है।)
शत्रु-सेनापति ः(फुसफुसाता हुआ) हम तुमसे बहुत ख़ुश हैं द्वारपाल। तुमने अपना वादा निभाया। सुल्तान तुम्हें मालामाल कर
देंगे। तुम्हारी बाक़ी ज़िंदगी ऐश के साथ गुज़रेगी। (इधर-उधर देखता है) यहाँ बहुत अंधेरा है। रास्ते भी कई दिख रहे हैं। अब
तुम हमें उस रास्ते पर ले चलो, जिस पर तुम्हारे राजा का महल है।
(द्वारपाल कुछ
नहीं बोलता। वह चुपचाप एक रास्ते पर बढ़ चलता है। पीछे-पीछे सेनापति और उसके सैनिक भी चल
पड़ते हैं।)
शत्रु-सेनापति ः(लड़खड़ाता
हुआ) उफ! कितना घना अंधेरा है। कुछ दिखाई नहीं पड़ता और रास्ता भी कितना टेढा़-मेढ़ा है।
द्वारपाल ःहुज़ूर
क्षमा करें। अगर मशाल जलाई तो महाराज के चौकस सैनिकों की निगाहें हम पर पड़ जाएगी। हम सब संकट में
पड़ जाएँगे।
शत्रु-सेनापति ःठीक
है, आगे बढ़ो। एक
बार राजा के महल में दाख़िल हो जाएँ,
बस। हमारे बाज़ुओं का
लोहा तो सारी दुनिया मानती है। इस छोटी-सी रियासत की क्या मजाल? सूरज की पहली किरन फूटने से पहले
जैसलमेर हमारे क़ब्ज़े में होगा। मेरे बाज़ू फड़क रहे हैं। तलवार ख़ून की प्यासी हो रही है। जल्दी करो, पहरेदार...
(द्वारपाल
अंधेरे का लाभ उठाकर अचानक ग़ायब हो जाता है।)
शत्रु-सेनापति ःयह
कौन-सी जगह है? इतना अंधेरा
है कि कुछ दिखाई नहीं देता। यह पहरेदार का बच्चा कहाँ मर गया?
(तभी चारों ओर
मशालें जल उठती हैं और एक स्त्री-स्वर गूँजता है।)
स्त्री-स्वर ःशत्रु-सेनापति
, तुम चारों ओर से घिर
चुके हो। अब यहाँ से तुम्हारा निकल पाना संभव
नहीं है। उचित यही होगा कि अपने सैनिकों सहित आत्म-समर्पण कर दो।
(एक सिपाही
आवाज़ की दिशा में तीर साधने का प्रयास करता है। पर तभी कहीं से एक तीर सनसनाता हुआ उसके सीने
को बेध जाता है।)
स्त्री स्वर ः इसी
तरह तुम सब मारे जाओगे। जान प्यारी है तो अपने अस्त्र-शस्त्र नीचे रख दो और स्वयं को हमारे हवाले कर
दो।
(शत्रु-सेनापति
बेबस होकर इधर-उधर देखता है। कुछ क्षणों के असमंजस के बाद वह अपनी तलवार नीचे रख
देता है। सिपाही भी अपने-अपने हथियार नीचे रख देते हैं। इस बीच रत्नावती के
सैनिक निकलकर चारों ओर से उन्हें घेर लेते हैं।)
रत्नावती ःअब
सुल्तान को पता चलेगा कि राजपूतों से बिना कारण बैर लेने का क्या परिणाम होता है। उसने सोचा होगा कि
भला एक स्त्री हमारा क्या मुक़ाबला करेगी। पर उसे नहीं पता कि स्त्री किसी भी
स्तर पर पुरुषों से निर्बल नहीं है। वह मोम की पुतली नहीं, वज्र की तरह
कठोर है। ठान ले तो बड़ी से बड़ी बाधाएँ भी उसके चरणों में लोट जाती हैं। (सेनापति की तरफ घूमकर) सेनापति जी, आप इन्हें कारागार
में भेजने का प्रबंध करिए।
सेनापति ः(असमंजस
के स्वरों में) जी, राजकुमारी, जी।
(सेनापति के
चेहरे पर ऊहापोह दिखाई देता है। वह चलने का उपक्रम करके भी वहीं खड़ा रह जाता है।)
रत्नावती ःसेनापति
जी, देखती हूँ कि आपके मन
में कुछ संशय है। क्या आप इस विजय से प्रसन्न
नहीं?
सेनापति ःऐसा
स्वप्न में न सोचें, राजकुमारी।
किंतु....
रत्नावती ःकिंतु
क्या, सेनापति?
सेनापति ःक़िले
में खाद्य-सामग्री लगभग ख़त्म हो चली है। शत्रु-सेना ने हमें घेर रखा है। बाहर से सहायता मिल
पाना संभव नहीं। हम लोग पहले ही मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। अब ऐसे में इतने
युद्ध-बंदियों के भोजन का प्रबंध कैसे संभव हो पाएगा?
रत्नावती ः(गहन
विचार की मुद्रा में) ये हमारे शत्रु अवश्य हैं, पर शत्रुता मानवता से बढ़कर नहीं हो सकती। आज से हम सब एक समय
उपवास रखेंगे। ध्यान रखिए सेनापति जी, इन युद्ध-बंदियों को किसी प्रकार की कोई
कमी न हो।
शत्रु-सेनापति ः(एकाएक
बोल पड़ता है) माफ़ करना शहज़ादी,
ज़मीन के चंद टुकड़ों को हड़पने और सोने-चाँदी की हवस में मैं यह भूल गया था कि तलवार से मुल्कों को फ़तह किया जा सकता है, दिलों को नहीं। आज इंसानियत की ताक़त के
आगे मेरी तलवार
झुक गई है।
(तभी एक सैनिक
दौड़ता हुआ आता है।)
सैनिक ःराजकुमारी
की जय हो, शत्रु-सेना के
शिविर उखड़ने आरंभ हो गए हैं। उनकी सेनाएँ वापस
लौटने लगीं हैं।
(सेनापति
उत्साह से राजकुमारी की ओर देखते हैं। राजकुमारी संतोष की साँस लेकर आँखें बंद कर लेती हैं।)