Tuesday 22 March 2016

ऐसा रंग चढ़े


होली का दिन नज़दीक आता जा रहा था। मुहल्ले के बच्चों में काफी उत्साह था। नीरज, सलीम, मंजीत और डेविड सभी रोज़ शाम को नीरज के दादा जी के पास जा पहुँचते और होली के बारे में ढेर सारी बातें करते। दादा जी भी रस ले-लेकर उनकी बातें सुनते। नीरज और मंजीत ने पहले से ही रंग और पिचकारियाँ खरीद ली थीं और नए कपड़े सिलने को दे दिए थे। डेविड और सलीम ने भी धमाकेदार ढंग से होली मनाने की तैयारियाँ पूरी कर ली थीं।

शाम को जब चारों दादा जी के पास इकट्ठे होते तो बताते कि उन्होंने क्या-क्या तैयारियाँ कर रखी हैं। उनकी बातें सुनकर दादा जी गद्गद् हो उठते और उन्हें प्रोत्साहित करते। 
आज होलिका-दहन का दिन था। चारों सुबह से ही होलिका-दहन की सामग्री इकट्ठा करने के लिए लोगों की मंडली के साथ घूम रहे थे।
शाम होते ही चारों दादा जी के पास जा पहुँचे और होलिका-दहन पर चलने की ज़िद करने लगे। दादा जी फटाफट तैयार हो गए। कंधे पर शाल डालकर और हाथ में छड़ी लेकर वह उनके साथ चल दिए।
कुछ ही देर में सभी वहाँ जा पहुँचे। चौराहे के बीचों-बीच जलाने के लिए मोटी-मोटी लकड़ियाँ रखीं गई थीं। जब उनमें आग लगाई गई तो उसकी ऊँची-ऊँची लपटें उठने लगीं। यह देख सारे बच्चे ख़ुश होकर तालियाँ बजाने लगे।
तभी एक चिंगारी छिटककर पास ही खड़े एक लड़के के कपड़ों पर जा गिरी। देखते ही देखते कपड़ों ने आग पकड़ ली। चीख़-पुकार मच गई। किसी को समझ नहीं आ रहा था क्या करे।
तभी दादा जी ने अपना शाल उतारकर उस लड़के को चारों ओर से ढँक दिया। आग फौरन बुझ गई। लड़के के कपड़े थोड़े-बहुत जल गए थे, पर उसकी त्वचा को नुकसान नहीं पहुँचा था। फिर भी घबराहट के कारण वह रोए जा रहा था। उसके माता-पिता दादा जी को धन्यवाद देकर, उसे घर लेकर चलेे गए।
थोड़ी ही देर में वहाँ फिर से हँसी-ख़ुशी का माहौल बन गया।
लौटते समय दादा जी ने बच्चों को बताया, ‘‘बच्चो, ऐसे मौकों पर हमें सदैव सावधान रहना चाहिए। आग से काफी दूर खड़े होना चाहिए और रेशमी कपड़े तो बिल्कुल नहीं पहनने चाहिए। फिर भी अगर ऐसी दुर्घटना घट जाती है, तो हमें साहस खोकर चीख़ना-चिल्लाना नहीं चाहिए बल्कि उससे बचने का प्रयास करना चाहिए। मोटे कपड़े से ढँक देने से आग बुझ जाती है। यदि कपड़ा न मिले तो फौरन ज़मीन पर लेटकर लोटपोट लगाना चाहिए। इससे भी आग बुझ जाती है।’’
सुबह होली थी। रात में ही सभी ने रंग घोलकर रख लिया था और अपनी पिचकारियाँ भी अच्छी तरह जाँच ली थीं, ताकि समय पर धोखा न दे जाएँ। उस दिन खा-पीकर सब जल्दी ही सो गए, ताकि सुबह जल्दी उठ सकें।
सुबह तक टब में घुला रंग बर्फ-सा ठंडा हो गया था। जब शरीर पर पड़ता तो पल भर के लिए कँपकँपी बँध जाती। लेकिन उमंग और उत्साह के आगे यह नाकाफी था। चारों इधर से उधर उछलते-कूदते एक-दूसरे पर दनादन पिचकारियाँ छोड़ रहे थे।
ढोलक की थाप और झाँझ-मजीरों की झनकार में बड़े-बूढ़े भी झूम रहे थे।
जी भर होली खेलने के बाद चारों दादा जी के पास जा पहुँचे। उनके रंग-बिरंगे चेहरों से उल्लास टपक रहा था।
दादा जी उन्हें देखते ही बोले, ‘‘आओ-आओ, खेल आए होली? खूब मज़ा लूटा, क्यों डेविड?’’
‘‘जी, दादा जी! लेकिन मैं डेविड नहीं, मैं तो मंजीत हूँ।’’ यह कहकर मंजीत मुस्कराया तो उसके रंग-बिरंगे चेहरे पर सफेद दाँत बिजली जैसे चमक उठे।
‘‘और नीरज, तुम तो बिल्कुल लंगूर लग रहे हो !’’
‘‘लेकिन दादा जी, मैं तो सलीम हूँ।’’
दादा जी ठठाकर हँस पड़े, ‘‘तो तुम सबने चेहरे पर इतना रंग पोत रखा है कि मुझे पहचानने में ही भूल हो गई।’’  
पर अगले ही पल उनके चेहरे पर गंभीरता छा गई। वह बोले, ‘‘काश, ऐसा प्रेम का रंग हर भारतवासी के चेहरे पर चढ़ जाता जिसमंे उसका धर्म, उसकी जाति सब कुछ रंग जाती। उसकी पहचान सिर्फ हिंदुस्तानी के रूप में होती। सच, तब कितना अच्छा होता। मेरे बच्चो, तुम्हें देखकर यह विश्वास होता है कि ऐसा दिन ज़रूर आएगा।’’
भावावेश के कारण दादाजी ने उन सबको अपनी बाहों में भर लिया।

Friday 8 January 2016

बुद्धू काका और मनफेर ताऊ

हमारे गाँव में बहुत से लोग थे। एक थे रहमत अली। नाम के बिल्कुल उल्टे। चेहरे पर ऐसा ताव जैसे हर वक़्त लड़ने को तैयार बैठे हों, और एक थे संतोषी काका, सपने में भी निन्यानबे के फेर में पड़े रहते थे। बहादुर कक्का ऐसे कि चूहे से भी डर जाएँ और बलवीर चाचा के लिए लाठी टेके बिना दो क़दम चलना मुहाल।
लेकिन दो लोग यथा नाम, तथा गुण थे--एक बुद्धू काका और दूसरे मनफेर ताऊ।
बुद्धू काका सचमुच के बुद्धू थे। कोई मज़ाक़ में भी कुछ कह दे तो सच मान बैठते थे। हमारे अहाते के एक कोने में बनी कोठरी में रहते थे। जब ज़मींदारी थी तो उनके पिता हमारे यहाँ चौकीदारी और सेवा-टहल किया करते थे। पिता गुज़र गए तो ज़िम्मेदारी बुद्धू काका ने संभाल ली। अब तो ज़मींदारी ख़त्म हुए ज़माना हो गया। अब्बा बताते हैं कि हमारे पास सैकड़ों बीघे ज़मीन, बाग़, तालाब और कई गाँव थे। पर समय के साथ धीरे-धीरे सब हाथ से निकल गए। लेकिन नहीं निकले तो बुद्धू काका। और निकलते भी क्यों? वे तो हमारे घर के एक सदस्य की भाँति थे। उनकी उम्र अब्बा से भी अधिक थी। अब्बा उनसे कभी कोई काम नहीं कहते थे। लेकिन बुद्धू काका ख़ुद सुबह-सुबह उठकर पूरा अहाता और दरवाज़ा बुहारते और बाज़ार से सौदा वगैरह ले आते थे। शेष समय वे बाहर बने कुँए की जगत पर सोए रहते थे। अगर किसी मसले पर वे अपनी राय दे देते तो अब्बा उसे पत्थर की लकीर की तरह मानते। अम्मा हमारी शरारतों की शिकायत रोज़ अब्बा से करतीं, पर वे कान न देते; लेकिन बुद्धू काका कभी कुछ कह देते तो हमारी शामत समझो।

बुद्धू काका अल्ला मियाँ की गाय थे। एकदम सीधे-सच्चे। बच्चे तक उन्हें बेवकू़फ बना जाते। गाँव के शरारती आकर झूठमूठ कह जाते, ‘‘काका, जल्दी जाओ, बाबू साहब बड़ी देर से तुम्हें याद कर रहे हैं।’’
बुद्धू काका कुएँ की जगत से उतरते और लाठी टेकते हुए अब्बा की बैठक में जाकर पूछते, ‘‘भैया, हमको बुलवाया क्या?’’
लोगों की शरारत समझकर अब्बा पूछते, ‘‘किसने भेजा है, आपको?’’
‘‘क..किसी ने नहीं। ऐसे ही चले आए कि शायद कोई काम हो।’’ और बुद्धू काका वापस आकर फिर से कुएँ की जगत पर लेट जाते।
एक बार किसी ने कह दिया कि बाबू साहब किसी बात पर बहुत नाराज़ हैं और तुम्हारा मुँह तक नहीं देखना चाहते। बस, बुद्धू काका भागकर भुसैले में जा छिपे और पूरा दिन नहीं निकले। शाम को ढुँढाई पड़ी तब कहीं आँखें सुजाए हुए पाए गए।
अब्बा अक्सर बरामदे में ही सो जाते थे। उन्हें देर तक पढ़ने की आदत थी। अम्मा को सोते समय रोशनी से चिढ़ होती थी। सो, अब्बा ने बरामदे में अपना अड्डा जमा लिया था। बरामदा यों तो खुला हुआ था, पर ख़स की टट्टियों पर फूलों की बेलें इस क़दर चढ़ी हुई थीं कि अहाते से अंदर का एक कोना ही दिखाई देता था। बुद्धू काका की आदत थी जब तक अब्बा कमरे की रोशनी बुझाकर लेट न जाते, वे अपनी कोठरी में बैठे जागते रहते।
एक रात अब्बा किसी काग़ज़ की तलाश करते-करते अल्मारियाँ साफ करने लग गए। अहाते से सिर्फ उनकी पीठ दिखाई दे रही थी। पता तो चल रहा था कि वे किसी काम में मशगूल हैं, पर बाहर से ठीक-ठीक दिखाई नहीं दे रहा था। बुद्धू काका का मन कर रहा था कि जाकर अब्बा मदद करें। पर रात को बिना बुलाए किसी के कमरे में जाना उन्होंने उचित न समझा। वे बेचैन होकर बैठे रहे। थोड़ी-थोड़ी देर बाद झाँकते तो हवा में लहराता कुर्ते का दामन दिख जाता। देर रात तक बरामदे से उठाने-रखने की आवाज़ें आती रहीं। कुछ समय बाद आवाज़ें तो आनी बंद हो गईं, पर लहराते कुर्ते का दामन दिखाई देता रहा जैसे अब्बा अब भी खड़े हों। रोशनी भी नहीं बुझी। बुद्धू काका पलंग पर बैठे-बैठे झपकी खाते रहे और रोशनी बुझने का इंतज़ार करते रहे। इसी इंतज़ार में सुबह हो गई।
सुबह अब्बा निकले तो बुद्धू काका ने पूछा, ‘‘भैया, रात भर सोए नहीं? काम था तो मुझे बुला लिया होता।’’
अब्बा हैरत से बोले, ‘‘नहीं तो, ख़ूब गहरी नींद सोया। और काम भी कोई ख़ास नहीं था। बस, काग़ज़ात दुरुस्त करके रख रहा था। फिर खूँटी पर कुर्ता टाँगकर सो गया। हाँ, रोशनी गुल करना ज़रूर भूल गया था।’’
बुद्धू काका बहुत खिसियाए। दरअसल, खूँटी पर टँगे कुर्ते को लहराता देखकर उन्होंने समझा कि अब्बा खड़े हैं। सारी बात जानकर अब्बा भावुक होकर बोले, ‘‘काका, तुम रात भर जागते रहे? इतनी तकलीफ सही? कम से कम आकर पूछ तो लिया होता।’’
‘‘तो क्या हुआ? वैसे भी मुझे नींद कहाँ आती है।’’ कहकर बुद्धू काका बाहर निकल गए।
ऐसे ही एक बार अब्बा उनके साथ खेतों की निगरानी के लिए निकले। रास्ते में अब्बा को एक ज़रूरी काम याद आ गया। वे बोले, ‘‘काका, तुम खेत पर पहुँचकर मेरा इंतज़ार करो, मैं ज़रा घर होकर आता हूँ।’’
अब्बा घर आकर काम में ऐसा फँसे कि खेत जाना ही भूल गए। शाम को आकर किसी ने बताया कि बुद्धू काका सुबह से ही खेत पर बैठे हुए हैं। कह रहे हैं, भैया आने को कह गए हैं।
अब्बा ने सुना तो सन्न रह गए। जिस हालत में थे वैसे ही भागे। पहुँचते ही उन्होंने बुद्धू काका को लिपटा लिया और माप़फी माँगने लगे। इस पर बुद्धू काका रो पड़े और कहने लगे ‘‘बस, यही दिन देखना रह गया था कि भैया हमसे माफी माँगें? भूल-चूक तो सबसे होती है।’’
ऐसे थे हमारे बुद्धू काका।
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और एक थे हमारे मनफेर ताऊ। वे रहते तो हमारे साथ नहीं थे, पर उनका दिन हमारी कोठी में ही बीतता था। मनफेर ताऊ सचमुच के मनफिरे थे। किसी काम को करते-करते मन फिरता कि उसे छोड़कर दूसरा काम करने लगते। नुकसान की परवाह भी न करते। जा रहे होते तालाब की ओर और निकल पड़ते खेतों की ओर। बाज़ार जाते-जाते चार कोस दूर सड़क पर यह देखने पहुँच जाते कि तीन बजेवाली बस गई या नहीं?
गाँववाले भी उन्हें ख़ूब बहकाते। घास निराता देखकर कोई कह उठता, ‘‘अरे मनफेर ताऊ, इस बार नन्हू ने खीरे बोए हैं या फदीना?’’ बस, ताऊ खुरपी उठाते और चल पड़ते। राह चलते-चलते कोई यह पूछ लेता कि कल्लू की बकरी ने चार बच्चे दिए या तीन? तो आधे रास्ते से उधर पलट पड़ते।
एक बार तो बड़ी मज़ेदार बात हुई। गर्मियों के दिन थे। रात एक पहर से ज़्यादा बीत चुकी थी। अमावस का आसमान तारों से भरा हुआ था। पूरा गाँव गहरी नींद में सो रहा था। मनफेर ताऊ को नींद कम आती थी। उम्र का भी असर था। देर तक लेटे तारे गिना करते थे।
आज भी वह चारपाई पर लेटे करवटें बदल रहे थे। इधर-उधर की बातें सोचते-विचारते अचानक उन्हें नन्हे पहलवान का ख़्याल आ गया। नन्हे पहलवान अपनी नींद के लिए मशहूर थे। लोग उन्हें कुंभकरण कहते थे। जब वे साँस खींचते तो उनकी तोंद पहाड़ की तरह उठती और साँस छोड़ते तो गुब्बारे की तरह फुस्स हो जाती। खर्राटों के साथ उनकी लंबी-लंबी मूँछें उड़तीं तो देखनेवाले अपनी हँसी न रोक पाते। मनफेर ताऊ को याद आने भर की देर थी कि चल पड़े पहलवान के घर की ओर। अमावस की रात। घना अंधेरा। ताऊ को सूझता भी कम था। दिशा-भ्रम के कारण के कारण वे कल्लू कुम्हार के छप्पर में जा घुसे। छप्पर में एक के ऊपर एक मटके रखे हुए थे। ताऊ उनसे टकराए तो गाँव भर में धड़ाम-भड़ाम गूँज उठी। कुत्तों ने भौं-भौं करके आसमान सिर पर उठा लिया। अचानक आई आफत से कल्लू कुम्हार डर गया और, ‘चोर-चोरकहकर चिल्लाने लगा। गर्मियों के दिन थे। लोग चारपाइयाँ निकालकर दरवाज़े ही सोते थे। आवाज़ सुनते ही सब लाठियाँ लेकर दौड़ पड़े। यह तो कहो कि संकट को भाँपकर ताऊ चिल्ला उठे, वर्ना उनकी हड्डी पसली एक होकर रहती।
हमारी खेती-बारी की सारी ज़िम्मेदारी मनफेर ताऊ की ही थी। फसल की बुआई-कटाई से लेकर गन्ने को मिल तक पहुँचाना, चक्की ले जाकर धान दरवाना और सरसों का तेल निकलवाना, सब उनके ही ज़िम्मे था। शायद इसीलिए अब्बा बेफिक्र होकर पढ़ने-लिखने का वक़्त निकाल लेते थे। अब्बा को हकीमी की किताबें पढ़ने का बड़ा शौक़ था। हालाँकि अपनी हिकमत उन्होंने कभी किसी पर आज़माई नहीं। घर में कोई बीमार पड़ता तो पंडित राधेश्याम साइकिल पर किरमिच का पुराना-सा थैला लटकाए कोठी आते थे। खेती-किसानी के बारे में अब्बा को बहुत कम जानकारी थी। बुआई-कटाई का ठीक समय क्या होता है? पौधों में कब पानी पड़ना चाहिए और कब पानी पड़ने से नुकसान हो सकता है? इन सबके बारे में उनकी समझ अनाड़ियों जैसी थी। हालाँकि ऐसे मौकों पर वे कभी-कभी अपने किताबी ज्ञान का उपयोग करते थे। पर ताऊ के अनुभवों के आगे उनकी दलीलें न टिक पातीं।

एक बार की बात है। अक्तूबर का महीना बीत रहा था। खेत सुनहरे हो चले थे। सीवान नवेली दुल्हन के कंगनों की तरह खनक रहा था। फसल तैयार देखकर ताऊ ने कटाई करवा ली। खेतों में धान के गट्ठर बाँधकर डाल दिए गए। अब गट्ठरों को उठाकर खलिहान में रखना भर था। पर ताऊ के मन में जाने क्या आलस समाया कि अनाज के गट्ठर खलिहान तक न पहुँच पाए।
शाम को आसमान में बादल उमड़ते-घुमड़ते देख अब्बा ने ताऊ को बुलवाया और कहा, ‘‘मौसम का मिज़ाज ठीक नहीं मालूम पड़ता। धान के गट्ठर खलिहान की कोठरियों में पहुँचा देना सही रहेगा। वर्ना पानी बरस गया तो सारा अनाज चौपट हो जाएगा।’’
अब्बा की बात से सहमत होकर ताऊ चार आदमियों को इकट्ठा करके खेत की ओर चल दिए।
सूरज डूब चुका था। चारों तरफ हल्का-हल्का अंधेरा पसरने लगा था। पूरब की तरफ से बादल घुमड़ रहे थे। मंद-मंद गड़गड़ाहट के बीच रह-रहकर बिजली चमक उठती थी। ताऊ मज़दूरों को लेकर सीवान तक नहीं पहुँचे थे कि ठिठककर खड़े हो गए। फिर जाने क्या सूझा कि पलटकर वापस चल पड़े और मज़दूरों से कह दिया, ‘‘तुम लोग यहीं बीड़ी फूँको। मैं अभी आता हूँ।’’
जब वे दो घंटे बाद भी न लौटे तो मज़दूर गाँव वापस लौट आए।
उस रात ज़बर्दस्त बारिश हुई। ओले भी पड़े। खेतों में जैसे दूर-दूर तक सफेद चादर-सी बिछ गई। पेड़ों की हालत ऐसी हो गई जैसे किसी ने झिंझोड़कर सारे पत्ते गिरा दिए हों।
ताऊ की आदत से परिचित अब्बा की रात बड़ी बेचैनी से कटी। सुबह होते ही वे खेतों पर जा पहुँचे। वहाँ का दृश्य देखकर वे सन्न रह गए। धान के गट्ठर कीचड़ में लथपथ पड़े थे। सारी फसल बरबाद हो चुकी थी। अब्बा ग़ुस्से से थरथराते हुए वापस लौटे और ताऊ को बुलवा भेजा।
ताऊ को बुलाने गया आदमी थोड़ी देर बाद लौटकर आया बोला, ‘‘गाँववाले कह रहे हैं कि वे मुँह अंधेरे ही कहीं चले गए।’’
अब्बा के क्रोध पर जैसे पानी पड़ गया। चेहरे पर अपराध-बोध झलक आया। भरे गले से अटकते-अटकते बोले, ‘‘...इतनी बड़ी बात थोड़े ही हो गई थी...कि गाँव छोड़कर चले जाएँ।’’
फौरन आदमी दौड़ाए गए।
ताऊ शहर जानेवाली बस के इंतज़ार में सड़क पर बैठे पाए गए। रात भर रोने से उनकी आँखें सूजी हुई थीं। लौटकर आए तो चौखट के अंदर नहीं दाख़िल हुए। बाहर ही बैठकर रोने लगे। अब्बा ने लपककर उन्हें उठाया तो कहने लगे, ‘‘बाबू साहब, हमने बहुत बड़ा पाप किया है। अब हम यहाँ नहीं रहेंगे। लोग कहते हैं कि हमारे दिमाग़ में कमी है, तभी इधर-उधर की बातें सूझती हैं। अब हम शहर जाकर अपना इलाज कराएँगे। ठीक हुए तो लौटेंगे, नहीं तो वहीं मर-खप जाएँगे। पर दोबारा चेहरा नहीं दिखएँगे।’’
अब्बा की आँखें भीग गईं। उन्होंने ताऊ को भींच लिया और भर्राए गले से बोले, ‘‘ताऊ, बस...तुम्हें कहीं नहीं जाना है। ...तुम मेरे लिए ऐसे ही ठीक हो।’’
ताऊ फफक पड़े। वहाँ खड़े लोगों की आँखें भी भीग गईं।
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इन बातों को एक अरसा बीत गया है। अब न बुद्धू काका हैं, न मनफेर ताऊ। हम लोग भी गाँव छोड़कर शहर आ बसे हैं। गाँव की कोठी चौकीदार के हवाले वीरान पड़ी रहती है। कभी-कभी उन लोगों की याद आती है तो सोचता हूँ कि अच्छा हुआ वे लोग अपना वक़्त बिताकर चले गए। अगर आज की स्वार्थी और चालाक दुनिया में होते तो कैसे जी पाते?